श्री महाभारत » पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व » अध्याय 22: मन-बुद्धि और इन्द्रियरूप सप्त होताओंका, यज्ञ तथा मन-इन्द्रिय-संवादका वर्णन » श्लोक 28 |
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| | श्लोक 14.22.28  | अगारमद्वारमिव प्रविश्य
संकल्पभोगान् विषये निबद्धान्।
प्राणक्षये शान्तिमुपैति नित्यं
दारुक्षयेऽग्निर्ज्वलितो यथैव॥ २८॥ | | | अनुवाद | जब विषय-वासनाओं से उत्पन्न भोगों का सेवन करने से प्राणशक्ति क्षीण हो जाती है, तब मनुष्य बिना द्वार वाले घर में प्रवेश करने वाले व्यक्ति की भाँति मौन हो जाता है, उसी प्रकार जैसे समिधाओं के जला देने पर जलती हुई अग्नि स्वयं ही बुझ जाती है ॥28॥ | | When the life force gets weakened by consuming the pleasures generated by the desires of sensual desires, a person becomes silent like a person who has entered a house without a door, in the same way as a burning fire gets extinguished by itself when the Samidhas are burnt. 28॥ |
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