श्री महाभारत » पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व » अध्याय 22: मन-बुद्धि और इन्द्रियरूप सप्त होताओंका, यज्ञ तथा मन-इन्द्रिय-संवादका वर्णन » श्लोक 14-15 |
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| | श्लोक 14.22.14-15  | मन उवाच
नाघ्राति मामृते घ्राणं रसं जिह्वा न वेत्ति च।
रूपं चक्षुर्न गृह्णाति त्वक् स्पर्शं नावबुध्यते॥ १४॥
न श्रोत्रं बुध्यते शब्दं मया हीनं कथंचन।
प्रवरं सर्वभूतानामहमस्मि सनातनम्॥ १५॥ | | | अनुवाद | एक बार मन ने इन्द्रियों से कहा, "मेरी सहायता के बिना नाक सूंघ नहीं सकती, जिह्वा रस का स्वाद नहीं ले सकती, आंखें रूप नहीं देख सकतीं, त्वचा स्पर्श नहीं कर सकती और कान शब्द नहीं सुन सकते। इसलिए मैं समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ और सनातन हूँ॥ 14-15॥ | | Once the mind said to the senses, "Without my help the nose cannot smell, the tongue cannot taste juice, the eyes cannot see form, the skin cannot feel touch and the ears cannot hear sound. Therefore I am the best and eternal of all beings.॥ 14-15॥ |
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