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श्लोक 14.2.20  |
स कथं सर्वधर्मज्ञ: सर्वागमविशारद:।
परिमुह्यसि भूयस्त्वमज्ञानादिव भारत॥ २०॥ |
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अनुवाद |
हे भारत! तुम सब धर्मों के ज्ञाता और सब शास्त्रों के विद्वान होकर भी अज्ञानवश बार-बार मोह में क्यों पड़ते हो?॥20॥ |
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Bharat! Despite being the knower of all religions and a scholar of all the scriptures, why do you repeatedly fall into temptation due to ignorance?'॥ 20॥ |
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इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि द्वितीयोऽध्याय:॥ २॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥ २॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २२ श्लोक हैं) |
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