श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 17: काश्यपके प्रश्नोंके उत्तरमें सिद्ध महात्माद्वारा जीवकी विविध गतियोंका वर्णन  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  14.17.41 
न च तत्रापि संतोषो दृष्ट्वा दीप्ततरां श्रियम्।
इत्येता गतय: सर्वा: पृथक्ते समुदीरिता:॥ ४१॥
 
 
अनुवाद
वहाँ भी अपने से कहीं अधिक तेजस्वी दूसरों की प्रभा और समृद्धि देखकर मन तृप्त नहीं होता। इस प्रकार मैंने जीव की इन समस्त गतियों का अलग-अलग तुमसे वर्णन किया है॥ 41॥
 
Even there, the mind is not satisfied after seeing the brilliance and prosperity of others much more radiant than one's own. In this manner, I have described all these movements of the living being separately to you.॥ 41॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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