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श्लोक 14.17.4  |
कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नर:।
उपभुङ्क्ते क्व वा कर्म विदेहस्यावतिष्ठते॥ ४॥ |
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अनुवाद |
मनुष्य अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल किस प्रकार भोगता है और जब उसका शरीर नहीं रहता, तब उसके कर्म कहाँ रहते हैं? ॥4॥ |
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How does a man enjoy the results of his good and bad deeds and where do his deeds remain when his body is no more? ॥ 4॥ |
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