श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 17: काश्यपके प्रश्नोंके उत्तरमें सिद्ध महात्माद्वारा जीवकी विविध गतियोंका वर्णन  »  श्लोक 32-33
 
 
श्लोक  14.17.32-33 
यथान्धकारे खद्योतं लीयमानं ततस्तत:।
चक्षुष्मन्त: प्रपश्यन्ति तथा च ज्ञानचक्षुष:॥ ३२॥
पश्यन्त्येवंविधं सिद्धा जीवं दिव्येन चक्षुषा।
च्यवन्तं जायमानं च योनिं चानुप्रवेशितम्॥ ३३॥
 
 
अनुवाद
जैसे नेत्रों वाला पुरुष अंधकार में इधर-उधर उगते और मरते हुए जुगनुओं को देखता है, वैसे ही ज्ञानरूपी नेत्र वाला सिद्ध पुरुष अपनी दिव्य दृष्टि से जन्मते, मरते और गर्भ में प्रवेश करते हुए प्राणियों को सदैव देखता रहता है ॥32-33॥
 
Just as a man with eyes sees fireflies rising and dying here and there in the dark, similarly a Siddha (supernatural) having the eye of knowledge always sees with his divine sight the living beings being born, dying and entering the womb. ॥32-33॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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