श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 17: काश्यपके प्रश्नोंके उत्तरमें सिद्ध महात्माद्वारा जीवकी विविध गतियोंका वर्णन  »  श्लोक 24-25
 
 
श्लोक  14.17.24-25 
स्रोतोभिर्यैर्विजानाति इन्द्रियार्थान् शरीरभृत् ॥ २४॥
तैरेव न विजानाति प्राणानाहारसम्भवान्।
तत्रैव कुरुते काये य: स जीव: सनातन:॥ २५॥
 
 
अनुवाद
देहधारी जीवात्मा, जिन इन्द्रियों द्वारा रूप, रस आदि विषयों का अनुभव करता है, उनके द्वारा अन्न से पोषित प्राण को नहीं जान सकता। जो जीवात्मा इस शरीर में रहकर कर्म करता है, वही सनातन जीवात्मा है॥24-25॥
 
The embodied soul cannot know the life which is nourished by food through the senses through which he experiences objects like form, taste etc. The soul which works while living in this body is the eternal soul.॥ 24-25॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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