श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 102: कपिला गौका तथा उसके दानका माहात्म्य और कपिला गौके दस भेद  »  श्लोक d14-d16
 
 
श्लोक  14.102.d14-d16 
शृङ्गाग्रे कपिलायास्तु सर्वतीर्थानि पाण्डव।
ब्रह्मणो हि नियोगेन निवसन्ति दिने दिने॥
प्रातरुत्थाय यो मर्त्य: कपिलाशृङ्गमस्तकात्।
यश्च्युतामम्बुधारां वै शिरसा प्रयत: शुचि:॥
स तेन पुण्यतीर्थेन सहसा हतकिल्बिष:।
जन्मत्रयकृतं पापं प्रदहत्यग्निवत् तृणम्॥
 
 
अनुवाद
युधिष्ठिर! ब्रह्माजी की आज्ञा से कपिला गाय के सींग के अग्र भाग में सदैव समस्त तीर्थ निवास करते हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातःकाल शुद्ध भाव से उठकर कपिला गाय के सींग और सिर से गिरने वाली जलधारा को नियमित रूप से अपने सिर पर धारण करता है, वह उस पुण्य के प्रभाव से सहसा पापरहित हो जाता है। जिस प्रकार अग्नि तिनके को जला देती है, उसी प्रकार वह जल मनुष्य के तीन जन्मों के पापों का नाश कर देता है।
 
‘Yudhishthira! By the order of Brahmaji, all the holy places always reside in the front part of the horn of Kapila. The person who wakes up every morning with pure intentions and regularly puts the stream of water falling from the horn and head of Kapila cow on his head, he suddenly becomes sinless due to the effect of that virtue. Just like fire burns straw, in the same way that water destroys the sins of three births of a person.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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