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श्लोक 13.51.26-28  |
तावपि स्वाविव सुतौ संस्कार्याविति निश्चय:।
क्षेत्रजो वाप्यपसदो येऽध्यूढास्तेषु चाप्युत॥ २६॥
आत्मवद् वै प्रयुञ्जीरन् संस्कारान् ब्राह्मणादय:।
धर्मशास्त्रेषु वर्णानां निश्चयोऽयं प्रदृश्यते॥ २७॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं किं भूय: श्रोतुमिच्छसि॥ २८॥ |
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अनुवाद |
शास्त्रों ने यह निश्चय किया है कि दोनों प्रकार के पुत्रों को अपने पुत्रों के समान ही संस्कार देना चाहिए। ब्राह्मण आदि को क्षेत्रज, अपसद और अध्युद्ध सभी प्रकार के पुत्रों को अपने पुत्रों के समान ही संस्कार देना चाहिए। वर्णों के संस्कारों के सम्बन्ध में भी शास्त्रों ने यही निश्चय किया है। इस प्रकार मैंने तुम्हें ये सब बातें बताईं। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?॥26-28॥ |
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The scriptures have decided that both types of sons should be given rituals in the same manner as one's own. Brahmins etc. should give rituals to all types of sons - Kshetraj, Apasad and Adhyudh - in the same manner as one's own. The scriptures have decided the same in relation to rituals for the Varnas. Thus, I have told you all these things. What else do you want to hear?॥26-28॥ |
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इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विवाहधर्मे पुत्रप्रतिनिधिकथने एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्याय:॥ ४९॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके प्रसंगमें पुत्रप्रतिनिधिकथनविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ४९॥
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