श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 5: स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुषकी श्रेष्ठता बतानेके लिये इन्द्र और तोतेके संवादका उल्लेख  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  13.5.23 
किमनुक्रोश्य वैफल्यमुत्पादयसि मेऽनघ।
आनृशंस्याभियुक्तस्य भक्तस्यानन्यगस्य च॥ २३॥
 
 
अनुवाद
‘निष्पाप देवेन्द्र! इन्हीं सब कारणों से मेरी इस वृक्ष में भक्ति है। मैं दयारूपी धर्म का पालन करने में रत हूँ और यहाँ से अन्यत्र कहीं जाना नहीं चाहता। ऐसी स्थिति में आप कृपा करके मेरे शुभ संकल्प को निष्फल करने का प्रयत्न क्यों करते हैं?’॥23॥
 
‘Innocent Devendra! Due to all these reasons I have devotion towards this tree. I am engaged in following the religion of compassion and do not want to go anywhere else from here. In such a situation why do you kindly try to make my good intentions futile?’॥ 23॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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