श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 2: प्रजापति मनुके वंशका वर्णन, अग्निपुत्र सुदर्शनका अतिथिसत्काररूपी धर्मके पालनसे मृत्युपर विजय पाना  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  13.2.44 
एतद् व्रतं मम सदा हृदि सम्परिवर्तते।
गृहस्थानां च सुश्रोणि नातिथेर्विद्यते परम्॥ ४४॥
 
 
अनुवाद
सुन्दरी! अतिथि-सेवा का यह व्रत मेरे हृदय में सदैव विद्यमान रहता है। गृहस्थों के लिए अतिथि-सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है ॥ 44॥
 
‘Beautiful girl! This vow of serving guests is always present in my heart. There is no greater religion for householders than serving guests. ॥ 44॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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