|
|
|
श्लोक 13.2.44  |
एतद् व्रतं मम सदा हृदि सम्परिवर्तते।
गृहस्थानां च सुश्रोणि नातिथेर्विद्यते परम्॥ ४४॥ |
|
|
अनुवाद |
सुन्दरी! अतिथि-सेवा का यह व्रत मेरे हृदय में सदैव विद्यमान रहता है। गृहस्थों के लिए अतिथि-सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है ॥ 44॥ |
|
‘Beautiful girl! This vow of serving guests is always present in my heart. There is no greater religion for householders than serving guests. ॥ 44॥ |
|
✨ ai-generated |
|
|