श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 2: प्रजापति मनुके वंशका वर्णन, अग्निपुत्र सुदर्शनका अतिथिसत्काररूपी धर्मके पालनसे मृत्युपर विजय पाना  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  13.2.43 
येन येन च तुष्येत नित्यमेव त्वयातिथि:।
अप्यात्मन: प्रदानेन न ते कार्या विचारणा॥ ४३॥
 
 
अनुवाद
‘जो वस्तु अतिथि को तृप्त करे, वही वस्तु उसे सदैव देनी चाहिए। अतिथि की तृप्ति के लिए यदि अपना शरीर भी देना पड़े, तो भी मन में कभी अन्यथा विचार न करें। ॥43॥
 
‘Whatever thing satisfies a guest, you should always give that thing to him. Even if you have to give your body for the satisfaction of the guest, never think otherwise in your mind. ॥ 43॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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