श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 19: शिवसहस्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान‍् शंकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्णके द्वारा भगवान‍् शिवजीकी महिमाका वर्णन  »  श्लोक 8-10
 
 
श्लोक  13.19.8-10 
वाल्मीकिश्चाह भगवान‍् युधिष्ठिरमिदं वच:।
विवादे साग्निमुनिभिर्ब्रह्मघ्नो वै भवानिति॥ ८॥
उक्त: क्षणेन चाविष्टस्तेनाधर्मेण भारत।
सोऽहमीशानमनघममोघं शरणं गत:॥ ९॥
मुक्तश्चास्मि तत: पापैस्ततो दु:खविनाशन:।
आह मां त्रिपुरघ्नो वै यशस्तेऽग्रॺं भविष्यति॥ १०॥
 
 
अनुवाद
इसके बाद भगवान वाल्मीकि ने राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- 'भारत! एक समय अग्निहोत्री ऋषियों के साथ मेरा विवाद हो रहा था। उस समय उन्होंने क्रोधित होकर मुझे शाप दे दिया कि 'तू ब्रह्महत्यारी हो जाएगा।' उनके ऐसा कहते ही मैं क्षण भर में उस पाप से घिर गया। तब मैंने पापों से रहित और अमोघ शक्ति वाले भगवान शंकर की शरण ली। इससे मैं उस पाप से मुक्त हो गया। तब दु:ख का नाश करने वाले और त्रिपुर का संहार करने वाले उन रुद्र ने मुझसे कहा- 'तुम्हें उत्तम यश प्राप्त होगा।'
 
After this, Lord Valmiki said to King Yudhishthira in this way- 'Bharat! Once I was having a dispute with the Agnihotri sages. At that time they got angry and cursed me that 'you will become a brahmahatyaar'. As soon as they said this, I was engulfed by that sin in a moment. Then I took refuge in Lord Shankar who is free from sins and has infallible power. By this I was freed from that sin. Then that Rudra who destroys sorrow and kills Tripura said to me- 'You will get the best fame'.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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