श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 19: शिवसहस्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान‍् शंकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्णके द्वारा भगवान‍् शिवजीकी महिमाका वर्णन  »  श्लोक 56-57
 
 
श्लोक  13.19.56-57 
अनुज्ञातो भगवता गृहं गत्वा युधिष्ठिर॥ ५६॥
अपश्यं पितरं तात इष्टिं कृत्वा विनि:सृतम्।
उपस्पृश्य गृहीत्वेध्मं कुशांश्च शरणाकुरून्॥ ५७॥
 
 
अनुवाद
हे युधिष्ठिर! भगवान शिव की आज्ञा से मैं घर गया और वहाँ यज्ञ सम्पन्न करके मैंने अपने पिता को यज्ञशाला से बाहर आते देखा। उस समय वे हवन सामग्री जैसे लकड़ी, कुशा और वृक्षों से गिरे हुए पके फल आदि ले जा रहे थे।
 
O dear Yudhishthira! By the order of Lord Shiva, I went back home and after performing the yajna there, I saw my father coming out of the yajnashaala. At that time he was carrying sacrificial offerings like firewood, kusha grass and ripe fruits that had fallen from the trees by themselves. 56-57.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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