श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 19: शिवसहस्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान‍् शंकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्णके द्वारा भगवान‍् शिवजीकी महिमाका वर्णन  »  श्लोक 52-54h
 
 
श्लोक  13.19.52-54h 
गालव उवाच
विश्वामित्राभ्यनुज्ञातो ह्यहं पितरमागत:॥ ५२॥
अब्रवीन्मां ततो माता दु:खिता रुदती भृशम्।
कौशिकेनाभ्यनुज्ञातं पुत्रं वेदविभूषितम्॥ ५३॥
न तात तरुणं दान्तं पिता त्वां पश्यतेऽनघ।
 
 
अनुवाद
गालवजी बोले- राजन! मैं ऋषि विश्वामित्र से अनुमति प्राप्त करके अपने पिता को देखने के लिए घर आया था। उस समय मेरी माता अपने वैधव्य के दुःख से दुःखी होकर जोर-जोर से रोती हुई मुझसे कहने लगी - 'पिताजी! ऊँघ! आपके पिता आपके उस युवा और बुद्धिमान पुत्र को नहीं देख पाए, जो कौशिक मुनि की अनुमति से घर में आया था और वेदों के ज्ञान से संपन्न था।' 52-53 1/2॥
 
Galvji said-King! After receiving permission from sage Vishwamitra, I came home to see my father. At that time, my mother, saddened by the grief of her widowhood, cried loudly and said to me - 'Father! Ungh! Your father could not see your young and intelligent son, who had come to the house with the permission of Kaushik Muni and was blessed with the knowledge of Vedas. 52-53 1/2॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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