श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 19: शिवसहस्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान‍् शंकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्णके द्वारा भगवान‍् शिवजीकी महिमाका वर्णन  »  श्लोक 40-41
 
 
श्लोक  13.19.40-41 
पराशर उवाच
प्रसाद्येह पुरा शर्वं मनसाचिन्तयं नृप।
महातपा महातेजा महायोगी महायशा:॥ ४०॥
वेदव्यास: श्रियावासो ब्राह्मण: करुणान्वित:।
अप्यसावीप्सित: पुत्रो मम स्याद् वै महेश्वरात्॥ ४१॥
 
 
अनुवाद
पराशरजी बोले - नरेश्वर ! पूर्वकाल में यहाँ महादेवजी को प्रसन्न करके मैं मन ही मन उनका चिन्तन करने लगा था। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य यह था कि महेश्वर की कृपा से मुझे महास्वादिष्ट, महातेजस्वी, महायोगी, महाशस्वी, दयालु, ऐश्वर्यशाली और ब्रह्मनिष्ठ वेदव्यास नामक इच्छित पुत्र प्राप्त हो ॥40-41॥
 
Parasharji said – Nareshwar! In earlier times, after pleasing Mahadevji here, I started thinking about him in my mind. The purpose of this penance of mine was that by the grace of Maheshwar, I should get the desired son named Mahatasteful, Mahatejaswi, Mahayogi, Mahashaswi, kind, prosperous and Brahmanishtha Vedvyas. 40-41॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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