श्री महाभारत » पर्व 13: अनुशासन पर्व » अध्याय 19: शिवसहस्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान् शंकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्णके द्वारा भगवान् शिवजीकी महिमाका वर्णन » श्लोक 23-25 |
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| | श्लोक 13.19.23-25  | एवमुक्त्वा महाक्रोध: प्राह शम्भुं पुनर्वच:।
प्रज्ञया रहितो दु:खी नित्यभीतो वनेचर:॥ २३॥
दशवर्षसहस्राणि दशाष्टौ च शतानि च।
नष्टपानीयपवने मृगैरन्यैश्च वर्जिते॥ २४॥
अयज्ञीयद्रुमे देशे रुरुसिंहनिषेविते।
भविता त्वं मृग: क्रूरो महादु:खसमन्वित:॥ २५॥ | | | अनुवाद | ऐसा कहकर अत्यन्त क्रोधी ज्येष्ठ ने भगवान शिव की ओर देखते हुए कहा, 'तुम ग्यारह हजार आठ सौ वर्षों तक बुद्धिहीन, दुःखी, सदा भयभीत, वन में विचरण करते हुए, महान् दुःखों में डूबे क्रूर पशु के रूप में, यज्ञ के अयोग्य वृक्षों से युक्त, जल और वायु से रहित, अन्य पशुओं द्वारा परित्यक्त तथा केवल रुरु और सिंहों द्वारा सेवित विशाल वन में रहोगे। | | ‘Having said this, the very wrathful senior said while looking at Lord Shiva, ‘You will remain devoid of wisdom, unhappy, always afraid, wandering in the forest and as a cruel animal immersed in great suffering, in a huge forest filled with trees that are not suitable for sacrifices, without water and air, abandoned by other animals and served only by Ruru and lions, for eleven thousand eight hundred years. |
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