श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 19: शिवसहस्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान‍् शंकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्णके द्वारा भगवान‍् शिवजीकी महिमाका वर्णन  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  13.19.22 
समीक्षस्व पुनर्बुद्‍ध्या पापं त्यक्त्वा द्विजोत्तम।
अयज्ञवाहिनं पापमकार्षीस्त्वं सुदुर्मते॥ २२॥
 
 
अनुवाद
"विप्रवर! अपना पापमय हठ त्यागकर पुनः मन से विचार करो। सुदुरमते! तुमने ऐसा पाप किया है कि यह यज्ञ निष्फल हो गया।"
 
"Vipravar! Give up your sinful insistence and think again with your mind. Sudurmate! You have committed such a sin that this sacrifice has become fruitless."
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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