श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 19: शिवसहस्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान‍् शंकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्णके द्वारा भगवान‍् शिवजीकी महिमाका वर्णन  »  श्लोक 17-18
 
 
श्लोक  13.19.17-18 
असितो देवलश्चैव प्राह पाण्डुसुतं नृपम्॥ १७॥
शापाच्छक्रस्य कौन्तेय विभो धर्मोऽनशत् तदा।
तन्मे धर्मं यशश्चाग्रॺमायुश्चैवाददत् प्रभु:॥ १८॥
 
 
अनुवाद
तत्पश्चात् असित देवल ने पाण्डुकुमार राजा युधिष्ठिर से कहा - 'कुन्तीनन्दन! प्रभु! इन्द्र के शाप से मेरा धर्म नष्ट हो गया था; किन्तु भगवान शंकर ने ही मुझे धर्म, महान यश और दीर्घायु प्रदान की है।
 
After that Asit Devala said to Pandukumar King Yudhishthir – 'Kuntinandan! Lord! My religion was destroyed by the curse of Indra; But it was Lord Shankar who gave me religion, great fame and long life.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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