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श्लोक 13.181.4  |
प्रयत: प्रातरुत्थाय यदधीये विशाम्पते।
प्राञ्जलि: शतरुद्रीयं तन्मे निगदत: शृणु॥ ४॥ |
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अनुवाद |
प्रजानाथ! मैं तुम्हें शतरुद्रिय के विषय में बता रहा हूँ, जिसका मैं प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर मन और इन्द्रियों को वश में रखकर हाथ जोड़कर जप करता हूँ; सुनो। |
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Prajanath! I am telling you about the Shatarudriya which I recite and chant every morning after getting up and keeping the mind and senses under control with folded hands; listen. |
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