श्री महाभारत » पर्व 13: अनुशासन पर्व » अध्याय 152: योद्धाओंके धर्मका वर्णन तथा रणयज्ञमें प्राणोत्सर्गकी महिमा » श्लोक d35-d37 |
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| | श्लोक 13.152.d35-d37  | सर्वकामदुघां धेनुं धरणीं लोकधारिणीम्।
समुद्रान्तां वरारोहे सशैलवनकाननाम्॥
दद्याद् देवि द्विजातिभ्यो वसुपूर्णां वसुन्धराम्॥
न तत्समं वरारोहे प्राणत्यागी विशिष्यते॥ | | | अनुवाद | वररोहे! यदि कोई समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली कामधेनु तथा समुद्र पर्यन्त जगत को धारण करने वाली पृथ्वी को, पर्वतों और वनों सहित, धन-धान्य से परिपूर्ण करके ब्राह्मणों को दान कर दे, तो वह दान भी उपर्युक्त योद्धा के यज्ञ के समान नहीं है। वह यज्ञकर्ता उस दानदाता से श्रेष्ठ है। | | Vararohe! If someone donates the Kamadhenu, which fulfils all desires, and the earth which holds the world up to the sea, along with mountains and forests, to the Brahmins, after filling it with wealth, then even that donation is not equal to the sacrifice made by the above-mentioned warrior. That sacrificer is better than that donor. |
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