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श्लोक 13.15.55  |
विभूषितं पुण्यपवित्रतोयया
सदा च जुष्टं नृप जह्नुकन्यया।
विभूषितं धर्मभृतां वरिष्ठै-
र्महात्मभिर्वह्निसमानकल्पै: ॥ ५५॥ |
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अनुवाद |
नरेश्वर! पुण्यवती जाह्नवी उस क्षेत्र की शोभा को सदैव बढ़ाती रहती थीं, मानो उन्हें उसमें आनन्द आता हो। वह स्थान अग्नि के समान तेजस्वी और धर्मात्माओं में श्रेष्ठ अनेक महात्माओं से सुशोभित था। 55॥ |
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Nareshwar! The virtuous Jhanvi always enhanced the beauty of that area as if she enjoyed it. That place was adorned with many Mahatmas who were as bright as fire and the best among religious souls. 55॥ |
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