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श्लोक 13.130.70-72h  |
पितर: केन तुष्यन्ति मर्त्यानामल्पचेतसाम्॥ ७०॥
अक्षयं च कथं दानं भवेच्चैवोर्ध्वदेहिकम्।
आनृण्यं वा कथं मर्त्या गच्छेयु: केन कर्मणा॥ ७१॥
एतदिच्छामहे श्रोतुं परं कौतूहलं हि न:। |
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अनुवाद |
मनुष्यों की बुद्धि सीमित है; अतः उन्हें ऐसा क्या करना चाहिए जिससे सभी पितर उनसे प्रसन्न हों? श्राद्ध में दिया गया दान किस प्रकार अक्षय हो सकता है? अथवा मनुष्य किस कर्म को करके अपने पितृऋण से कैसे मुक्त हो सकते हैं? हम यह सुनना चाहते हैं। हम यह सब सुनने के लिए बहुत उत्सुक हैं।'॥70-71 1/2॥ |
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‘Humans have limited intelligence; so what should they do so that all the ancestors will be pleased with them? How can the donation given in Shraddha become everlasting? Or how can humans get rid of the debt of their ancestors by doing which deed? We want to hear this. We are very eager to hear all this.'॥ 70-71 1/2॥ |
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