श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 117: पापसे छूटनेके उपाय तथा अन्नदानकी विशेष महिमा  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  13.117.20 
अवाप्य प्राणसंदेहं कार्कश्येन समार्जितम्।
अन्नं दत्त्वा द्विजातिभ्य: शूद्र: पापात् प्रमुच्यते॥ २०॥
 
 
अनुवाद
शूद्र भी यदि अपने प्राणों की परवाह न करते हुए परिश्रम से अर्जित अन्न ब्राह्मणों को दान करता है तो वह अपने पापों से मुक्त हो जाता है।
 
Even a Shudra, without caring for his life, if he donates food earned by hard work to Brahmins, he gets rid of his sins. 20.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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