श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 117: पापसे छूटनेके उपाय तथा अन्नदानकी विशेष महिमा  »  श्लोक 17-18
 
 
श्लोक  13.117.17-18 
अहिंसन् ब्राह्मणस्वानि न्यायेन परिपाल्य च।
क्षत्रियस्तरसा प्राप्तमन्नं यो वै प्रयच्छति॥ १७॥
द्विजेभ्यो वेदवृद्धेभ्य: प्रयत: सुसमाहित:।
तेनापोहति धर्मात्मन् दुष्कृतं कर्म पाण्डव॥ १८॥
 
 
अनुवाद
हे धर्मात्मा पाण्डु नन्दन! जो क्षत्रिय ब्राह्मण का धन नहीं चुराता, धर्मपूर्वक प्रजा की सेवा करता है तथा अपने बल से प्राप्त अन्न को पूर्णतः शुद्ध एवं तल्लीन मन से विद्वान ब्राह्मणों को दान करता है, वह उस अन्नदान के प्रभाव से अपने पूर्वजन्म के पापों का नाश कर देता है ॥17-18॥
 
Righteous Pandu Nandan! The Kshatriya who does not steal the wealth of a Brahmin and serves the people righteously and donates the food obtained by his own strength to the learned Brahmins with a completely pure and absorbed mind, he destroys his past sins with the effect of that food donation. 17-18॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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