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श्लोक 13.117.14  |
यस्य ह्यन्नमुपाश्नन्ति ब्राह्मणानां शतं दश।
हृष्टेन मनसा दत्तं न स तिर्यग्गतिर्भवेत्॥ १४॥ |
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अनुवाद |
जिसका भोजन एक हजार ब्राह्मण प्रसन्नतापूर्वक करते हैं और स्वयं खाते हैं, वह मनुष्य पशु या पक्षी की योनि में जन्म नहीं लेता। 14. |
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The person whose food is happily offered by a thousand brahmins and is eaten by them does not take birth in the womb of an animal or a bird. 14. |
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