श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 111: मास, पक्ष एवं तिथिसम्बन्धी विभिन्न व्रतोपवासके फलका वर्णन  »  श्लोक 57-59
 
 
श्लोक  13.111.57-59 
स गत्वा स्त्रीशताकीर्णे रमते भरतर्षभ॥ ५७॥
क्षीणस्याप्यायनं दृष्टं क्षतस्य क्षतरोहणम्।
व्याधितस्यौषधग्राम: क्रुद्धस्य च प्रसादनम्॥ ५८॥
दु:खितस्यार्थमानाभ्यां दु:खानां प्रतिषेधनम्।
न चैते स्वर्गकामस्य रोचन्ते सुखमेधस:॥ ५९॥
 
 
अनुवाद
हे भरतश्रेष्ठ! वह स्वर्ग में जाकर सैकड़ों सुन्दर स्त्रियों से युक्त महल में भोग करता है। इस संसार में दुर्बल मनुष्य भी स्वस्थ और बलवान होते देखा गया है। घाव हो जाने पर उसका घाव भी भर जाता है। रोगी को रोग निवारण हेतु औषधि मिल जाती है। क्रोध से भरे हुए मनुष्य को शांत करने का भी उपाय मिल जाता है। धन और मान के लिए दुःखी मनुष्य के दुःखों का निवारण भी देखा गया है; किन्तु स्वर्ग की इच्छा रखने वाले तथा दिव्य सुख चाहने वाले मनुष्य को इस संसार के सुखों की ये सब बातें अच्छी नहीं लगतीं। 57-59।
 
O best of the Bharatas! He goes to heaven and enjoys himself in a palace filled with hundreds of beautiful women. In this world, a weak man has been seen to become healthy and strong. A person who has got a wound, his wound also heals. A patient gets a medicine to cure his illness. A means is also available to pacify a person who is filled with anger. The relief of the sorrows of a person who is sad for money and respect has also been seen; but a person who desires heaven and wants divine happiness does not like all these talks of the pleasures of this world. 57-59.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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