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श्लोक 13.11.21  |
नाहं शरीरेण वसामि देवि
नैवं मया शक्यमिहाभिधातुम्।
भावेन यस्मिन् निवसामि पुंसि
स वर्धते धर्मयशोऽर्थकामै:॥ २१॥ |
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अनुवाद |
देवी! मैं नारायण के अतिरिक्त किसी अन्य शरीर में निवास नहीं करता। मैं यहाँ यह नहीं कह सकता कि मैं इसी रूप में सर्वत्र निवास करता हूँ। जिस मनुष्य में मैं विचारों द्वारा निवास करता हूँ, वह धर्म, यश, धन और काम से युक्त होकर सदैव बढ़ता रहता है। ॥21॥ |
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Devi! I do not reside in any other body except in Narayana. I cannot say here that I reside in this form everywhere. The person in whom I reside through thoughts, he becomes blessed with Dharma, Fame, Wealth and Kama and keeps on growing forever. ॥ 21॥ |
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इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि श्रीरुक्मिणीसंवादे एकादशोऽध्याय:॥ ११॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें लक्ष्मी और रुक्मिणीका संवादविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ११॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २३ श्लोक हैं) |
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