श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 1: युधिष्ठिरको सान्त्वना देनेके लिये भीष्मजीके द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादका वर्णन  »  श्लोक 51
 
 
श्लोक  13.1.51 
यथा वायुर्जलधरान् विकर्षति ततस्तत:।
तद्वज्जलदवत् सर्प कालस्याहं वशानुग:॥ ५१॥
 
 
अनुवाद
सर्प! जैसे वायु बादलों को इधर-उधर उड़ा ले जाती है, वैसे ही मैं भी काल के वश में हूँ ॥ 51॥
 
Serpent! Just as the wind blows the clouds here and there, like those clouds, I too am under the control of time. ॥ 51॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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