श्री महाभारत » पर्व 13: अनुशासन पर्व » अध्याय 1: युधिष्ठिरको सान्त्वना देनेके लिये भीष्मजीके द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादका वर्णन » श्लोक 48 |
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| | श्लोक 13.1.48  | सर्प उवाच
यथा हवींषि जुह्वाना मखे वै लुब्धकर्त्विज:।
न फलं प्राप्नुवन्त्यत्र फलयोगे तथा ह्यहम्॥ ४८॥ | | | अनुवाद | सर्प ने कहा- व्याध! जैसे ऋत्विज् लोग यजमान के यहाँ यज्ञ में अग्नि में आहुति देते हैं; परन्तु उसका फल उन्हें नहीं मिलता। उसी प्रकार इस अपराध का फल या दण्ड भोगने में मुझे सम्मिलित न किया जाए (क्योंकि वास्तव में मृत्यु ही अपराधी है)। | | The snake said – Huntsman! Just as the Ritwij people offer oblations to the fire in the Yagya at the Yajman's place; But they do not get its fruits. Similarly, I should not be included in suffering the consequences or punishment of this crime (because in reality death is the culprit). 48॥ |
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