श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 1: युधिष्ठिरको सान्त्वना देनेके लिये भीष्मजीके द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादका वर्णन  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  13.1.32 
लुब्धक उवाच
वृत्रं हत्वा देवराट् श्रेष्ठभाग् वै
यज्ञं हत्वा भागमवाप चैव।
शूली देवो देववृत्तं चर त्वं
क्षिप्रं सर्पं जहि मा भूत् ते विशङ्का॥ ३२॥
 
 
अनुवाद
व्याध ने कहा - देवि! वृत्रासुर को मारकर देवराज इन्द्र ने उत्तम पद का भाग पाया और दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करके त्रिशूलधारी रुद्र ने उसमें अपना भाग प्राप्त किया। आप भी देवताओं द्वारा दिखाए गए इस आचरण का अनुसरण करें। इस सर्प को शीघ्र मार डालें। आपको इस कार्य में संदेह नहीं करना चाहिए। 32॥
 
The hunter said – Goddess! By killing Vritrasura, Devraj Indra got a share in the best position and by destroying Daksha's yajna, Rudra, the trident wielder, got a share in it for himself. You too should follow this behavior shown by the gods. Kill this snake quickly. You should not doubt in this work. 32॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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