श्री महाभारत  »  पर्व 13: अनुशासन पर्व  »  अध्याय 1: युधिष्ठिरको सान्त्वना देनेके लिये भीष्मजीके द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादका वर्णन  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  13.1.26 
गौतम्युवाच
आर्तिर्नैवं विद्यतेऽस्मद्विधानां
धर्मात्मान: सर्वदा सज्जना हि।
नित्यायस्तो बालकोऽप्यस्य तस्मा-
दीशे नाहं पन्नगस्य प्रमाथे॥ २६॥
 
 
अनुवाद
गौतमी बोलीं - "अर्जुनक! हम जैसे लोगों को किसी प्रकार की हानि से कभी दुःख नहीं होता। धर्मात्मा सज्जन सदैव धर्म में लगे रहते हैं। मेरा यह बालक मरने वाला था, इसलिए मैं इस सर्प को मारने में असमर्थ हूँ॥ 26॥
 
Gautami said, "Arjunak! People like us are never hurt by any kind of loss. A virtuous gentleman always remains engaged in Dharma. This child of mine was about to die; that is why I am unable to kill this snake.॥ 26॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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