|
|
|
श्लोक 12.363.4  |
असङ्गतिरनाकाङ्क्षी नित्यमुञ्छशिलाशन:।
सर्वभूतहिते युक्त एष विप्रो भुजङ्गम॥ ४॥ |
|
|
अनुवाद |
नागराज! इन ब्राह्मणों ने असंग रहकर सांसारिक इच्छाओं का त्याग कर दिया था और सदैव उच्चा और शीलवृत्ति से प्राप्त अन्न का ही सेवन करते थे। वे निरन्तर समस्त प्राणियों के कल्याण में लगे रहते थे। 4॥ |
|
Nagraj! These Brahmins had renounced worldly desires by living asangs and always ate only the food obtained from Ucchha* and Shilvrittis. He was constantly engaged in the welfare of all living beings. 4॥ |
|
✨ ai-generated |
|
|