श्री महाभारत  »  पर्व 11: स्त्री पर्व  »  अध्याय 15: भीमसेनका गान्धारीको अपनी सफाई देते हुए उनसे क्षमा माँगना, युधिष्ठिरका अपना अपराध स्वीकार करना, गान्धारीके दृष्टिपातसे युधिष्ठिरके पैरोंके नखोंका काला पड़ जाना, अर्जुनका भयभीत होकर श्रीकृष्णके पीछे छिप जाना, पाण्डवोंका अपनी मातासे मिलना, द्रौपदीका विलाप, कुन्तीका आश्वासन तथा गान्धारीका उन दोनोंको धीरज बँधाना  »  श्लोक 13-14
 
 
श्लोक  11.15.13-14 
हताश्वे नकुले यत्तु वृषसेनेन भारत।
अपिब: शोणितं संख्ये दु:शासनशरीरजम्॥ १३॥
सद्भिर्विगर्हितं घोरमनार्यजनसेवितम्।
क्रूरं कर्माकृथास्तस्मात्तदयुक्तं वृकोदर॥ १४॥
 
 
अनुवाद
भरत! किन्तु जब वृषसेन ने नकुल के घोड़ों को मारकर उसे रथहीन कर दिया था, तब तुमने युद्ध में दु:शासन को मारकर उसका रक्तपान किया, जो अत्यन्त क्रूरता का कार्य है, जिसकी निंदा पुण्यात्माओं द्वारा भी की जाती है और दुष्टों द्वारा भी। वृकोदर! तुमने वही क्रूर कार्य किया है, इसलिए यह तुम्हारा अत्यन्त अयोग्य कार्य हुआ।
 
Bhaarat! But when Vrishasena had killed Nakula's horses and left him without a chariot, you killed Dushasan in the war and drank his blood, which is an act of extreme cruelty condemned by the virtuous and served by the wicked men. Vrikodara! You have done the same cruel act, therefore it has become a very unworthy act by you.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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