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श्लोक 1.79.d9-d10  |
(अवमानमवाप्नोति शनैर्नीचेषु सङ्गत:।
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहत: शोचति रात्र्यहानि।
शनैर्दु:खं शस्त्रविषाग्निजातं
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु॥
संरोहति शरैर्विद्धं वनं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्॥ ) |
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अनुवाद |
नीच पुरुषों की संगति करने से मनुष्य धीरे-धीरे अपमानित होता है। उसके मुख से निकले हुए कठोर वचनों रूपी बाणों से आहत होकर मनुष्य दिन-रात दुःख में डूबा रहता है। शस्त्र, विष और अग्नि से होने वाली पीड़ा धीरे-धीरे अनुभव होती है (परन्तु कठोर वचन तुरन्त ही अत्यन्त पीड़ा पहुँचाने लगते हैं)। इसलिए विद्वान पुरुष को दूसरों पर वचन रूपी बाण नहीं चलाना चाहिए। बाण से बिंधा हुआ वृक्ष और कुल्हाड़ी से काटा हुआ वन तो फिर से फलने-फूलने लगते हैं, परन्तु जीभ से निकले हुए भयंकर कठोर वचनों से घायल हुआ हृदय का घाव कभी नहीं भरता। |
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A man gradually gets humiliated by associating with mean men. Hurt by the arrows of harsh words that come out of his mouth, a man remains immersed in sorrow day and night. The pain caused by weapons, poison and fire is experienced gradually (but harsh words start causing extreme pain immediately). Therefore, a learned man should not shoot arrows of words at others. A tree pierced by an arrow and a forest cut down by an axe flourish again, but the wound of the heart that is injured by the terrible harsh words that come out of the tongue never heals. |
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इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने एकोनाशीतितमोऽध्याय:॥ ७९॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ७९॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १० १/२ श्लोक मिलाकर कुल २३ १/२ श्लोक हैं) |
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