श्री महाभारत » पर्व 1: आदि पर्व » अध्याय 79: शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष » श्लोक d1-2 |
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| | श्लोक 1.79.d1-2  | शुक्र उवाच
(मम विद्या हि निर्द्वन्द्वा ऐश्वर्यं हि फलं मम।
दैन्यं शाठॺं च जैह्मॺं च नास्ति मे यदधर्मत:॥ )
य: परेषां नरो नित्यमतिवादांस्तितिक्षते।
देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम्॥ १॥
य: समुत्पतितं क्रोधं निगृह्णाति हयं यथा।
स यन्तेत्युच्यते सद्भिर्न यो रश्मिषु लम्बते॥ २॥ | | | अनुवाद | शुक्राचार्य बोले- पुत्री! मेरा ज्ञान द्वंद्वरहित है। मेरा धन उसका फल है। मुझमें दीनता, बेईमानी, कुटिलता और अधर्म का आचरण नहीं है। देवयानी! जो मनुष्य दूसरों के कटु वचनों (दूसरों द्वारा अपनी निन्दा) को सदैव सहन करता है, उसी ने इस सम्पूर्ण जगत को जीत लिया है, ऐसा समझो। जो घोड़े के समान बढ़ते हुए क्रोध को वश में कर लेता है, उसे सज्जन पुरुष सच्चा सारथी कहते हैं। किन्तु जो केवल लगाम पकड़कर लटका रहता है, वह सारथी नहीं है॥ 1-2॥ | | Shukracharya said- Daughter! My knowledge is free from conflict. My wealth is its fruit. There is no humility, dishonesty, crookedness and unrighteous behavior in me. Devyani! Consider that the person who always tolerates the harsh words of others (his criticism by others) has conquered this entire world. The one who controls the rising anger like a horse is called a true charioteer by the good men. But the one who only hangs on holding the reins or bridles is not him.॥ 1-2॥ |
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