श्रीमद् भगवद्-गीता  »  अध्याय 6: ध्यानयोग  »  श्लोक 20-23
 
 
श्लोक  6.20-23 
 
 
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २० ॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत: ॥ २१ ॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत: ।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ २२ ॥
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ॥ २३ ॥
 
अनुवाद
 
  सिद्धि की प्राप्ति की अवस्था को समाधि कहते हैं। इसमें योग अभ्यास के ज़रिए व्यक्ति का मन भौतिक मानसिक गतिविधियों से पूरी तरह वंचित हो जाता है। इस सिद्धि के ज़रिए व्यक्ति शुद्ध मन से अपने को देख पाता है और अपने में ही आनन्द ले पाता है। आनन्द की ऐसी स्थिति में वह दिव्य इन्द्रियों से असीम दिव्य-सुख में स्थित रहता है। इस तरह से स्थापित होकर वह व्यक्ति कभी भी सत्य से विचलित नहीं होता और इस अवस्था की प्राप्ति के बाद उसे इससे बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं दिखता। ऐसी अवस्था में पहुँच कर व्यक्ति बड़ी से बड़ी कठिनाई में भी विचलित नहीं होता। यह भौतिक संसर्ग से उत्पन्न होने वाले हर तरह के दुख से वास्तविक मुक्ति है।
 
 
 
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