एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ १६ ॥
अनुवाद
हे प्रिय अर्जुन! जो मानव जीवन में वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र का पालन नहीं करता वह निसंदेह पापमय जीवन जीता है। ऐसा व्यक्ति केवल इन्द्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है।