श्रीमद् भगवद्-गीता » अध्याय 2: गीता का सार » श्लोक 67 |
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| | श्लोक 2.67  | |  | | इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ ६७ ॥ | | अनुवाद | | जैसे प्रबल हवा पानी में बहती नाव को दूर ले जाती है, ठीक वैसे ही मन को लगी हुई एक इंद्रिय मनुष्य की बुद्धि को उसकी ओर ले जाती है। | |
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