श्री भगवान ने कहा- हे पार्थ! जब इंसान इंद्रियों को तृप्ति देने वाली ऐसी सभी इच्छाओं को त्याग देता है जो मनोवृत्तियों से उत्पन्न होती हैं और जब उसके इस तरह से शुद्ध हुए मन को केवल अपने अंदर ही संतुष्टि मिलती है, तो उसे शुद्ध अलौकिक चेतना की प्राप्ति (स्थितप्रज्ञ) हो गई होती है।