श्रीमद् भगवद्-गीता  »  अध्याय 18: संन्यास योग  »  श्लोक 77
 
 
श्लोक  18.77 
 
 
तच्च‍ संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: ।
विस्मयो मे महान्‍राजन्हृष्यामि च पुन: पुन: ॥ ७७ ॥
 
अनुवाद
 
  हे महाराज! जब मैं भगवान कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करता हूँ तो मैं बार-बार आश्चर्यचकित होता हूँ और बार-बार हर्षित होता हूँ।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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