श्रीमद् भगवद्-गीता » अध्याय 18: संन्यास योग » श्लोक 56 |
|
| | श्लोक 18.56  | |  | | सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय: ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥ ५६ ॥ | | अनुवाद | | मेरा शुद्ध भक्त, जो मेरे संरक्षण में है, वह मेरी कृपा से सभी प्रकार की गतिविधियों में लिप्त होने के बाद भी नित्य और अविनाशी धाम को प्राप्त करता है। | |
| |
|
|