श्रीमद् भगवद्-गीता  »  अध्याय 18: संन्यास योग  »  श्लोक 51-53
 
 
श्लोक  18.51-53 
बुद्ध्या विश‍ुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥ ५१ ॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस: ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित: ॥ ५२ ॥
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५३ ॥
 
 
अनुवाद
जो अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर, दृढ़ संकल्प के साथ मन को वश में करके, इन्द्रिय-तृप्ति के विषयों का त्याग करके, राग-द्वेष से मुक्त होकर, एकान्त स्थान में रहने वाला, कम खाने वाला, शरीर, मन और वाणी को वश में रखने वाला, सदैव समाधि में रहने वाला और विरक्त, मिथ्या अहंकार, मिथ्या बल, मिथ्या दर्प, काम, क्रोध और भौतिक वस्तुओं के ग्रहण से मुक्त, मिथ्या स्वामित्व से मुक्त और शान्त है - ऐसा व्यक्ति निश्चय ही आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है।
 
Purifying his intellect and patiently controlling the mind, renouncing the objects of sense-gratification, free from attachment and aversion, he who lives in a solitary place, who eats little, who controls his body, mind and speech, who is always in meditation and is completely detached, free from false ego, false power, false pride, lust, anger and accumulation of material things, who is devoid of the sense of false ownership and is tranquil, certainly attains the state of Self-realization.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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