श्रीमद् भगवद्-गीता  »  अध्याय 18: संन्यास योग  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  18.5 
 
 
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ ५ ॥
 
अनुवाद
 
  त्याग, दान और तपस्या के कर्मों को कभी नहीं त्यागना चाहिए, उन्हें ज़रूर पूरा करना चाहिए। निस्संदेह त्याग, दान और तपस्या महात्माओं को भी शुद्ध करती हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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