श्रीमद् भगवद्-गीता » अध्याय 18: संन्यास योग » श्लोक 45 |
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| | श्लोक 18.45  | |  | | स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥ ४५ ॥ | | अनुवाद | | अपने-अपने कर्मों के गुणों पर चलते हुए हर व्यक्ति सिद्ध हो सकता है। अब तुम सुनो कि यह कैसे हो सकता है। | |
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