सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दु:खान्तं च निगच्छति ॥ ३६ ॥
अनुवाद
हे भरतश्रेष्ठ! अब तुम मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुनो, जिनका आनंद बद्ध जीव लेता है और जिनका आनंद लेने से कभी-कभी उसके सभी कष्टों का अंत हो जाता है।