श्रीमद् भगवद्-गीता  »  अध्याय 18: संन्यास योग  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  18.17 
 
 
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्ल‍ोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ १७ ॥
 
अनुवाद
 
  जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित नहीं है, जिसकी बुद्धि बँधी नहीं है, वह इस संसार में मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता। न ही वह अपने कर्मों के बंधन में आता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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