श्रीमद् भगवद्-गीता  »  अध्याय 17: श्रद्धा के विभाग  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  17.28 
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्‍तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ २८ ॥
 
 
अनुवाद
हे पृथापुत्र! परमेश्वर में श्रद्धा के बिना जो भी यज्ञ, दान या तप किया जाता है, वह अनित्य है। वह असत् कहलाता है और इस जीवन तथा अगले जीवन में व्यर्थ है।
 
O Parth! Whatever is done as sacrifice, charity or penance without faith is perishable. It is called 'asat' and is wasted both in this birth and the next birth.
 
इस प्रकार श्रीमद् भगवद्-गीता के अंतर्गत सत्रहवाँ अध्याय समाप्त होता है ।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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