श्रीमद् भगवद्-गीता » अध्याय 17: श्रद्धा के विभाग » श्लोक 21 |
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| | श्लोक 17.21  | |  | | यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन: ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ २१ ॥ | | अनुवाद | | लेकिन जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है उसे रजोगुणी दान कहते हैं। | |
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