श्रीमद् भगवद्-गीता » अध्याय 14: प्रकृति के तीन गुण » श्लोक 7 |
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| | श्लोक 14.7  | |  | | रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ ७ ॥ | | अनुवाद | | हे कुन्तीपुत्र! रजोगुण असीमित इच्छाओं और अभिलाषाओं से उत्पन्न होता है और इसी के कारण यह देहधारी जीव भौतिक फलदायी कार्यों से बंध जाता है। | |
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